मंगलवार, 10 मई 2011

हमारे देस की संबिधान@प्रभात राय भट्ट r

संबिधान की समयअब्धि 
 हो रही है अबसान,
अब कब बन पायेगी
 हमारे देस की संबिधान,
प्रचंड आया तांडब दिखाया,
जनता को खूब भ्रमाया,
जब तलक कुछ कर पता,
भला होता या बुरा होता ,
फस गए वेचारा अपनेही,
हाथों बुने हुए जाल में ,
हाथ आई लोटरी डूब गयी,
टुक्रे टुक्रे हुए सरे सपने,
छोड़ चले मात्रिका जो थे
उसके अपने,
बाबुराम किरण बैध भी
 क्या कम थे
कहदिए प्रचण्डको निक्मा,
वेचारे प्रचंड अक बक
 कुछ बोल न पाया ,
फिर एक नयी प्लान बनाया ,
उसमे भी जोर का झटका पाया,

सत्ता की कुर्सी पाने की लालच में 
कई सौदागर मौजूद थे,
गिरिजा बाबु की हाथ
 पड़े माधव के माथ,
 माधव की अतृप्त ईच्छा
 हुवा साकार,
बने एमाले की
मिलीजुली सरकार,
जनतामे एक नयी आस जगी,
झूठाही सही कुछ तो प्यास बुझी
माधव ने संबिधान बनाने की
 कसम उठाया,
झलनाथ और प्रचंडको ये बात 
रास न आया,
फस दिए उसके पैरों में जंजीर ,
तान दिए लक्ष्मण रेखा की लकीर,
प्रचंडने दिखाया अपना कारनामा,
माधव को देना पड़ा राजीनामा ,

तीर निशाने पर लग गयी,
मानो की झलनाथ की
झंझट टल गयी,
क्या होगा ईस देस का?
कब बनेगी संबिधान?
आनेवाली खतरा से
जनता है थर्कमान,
आक्रोशित हुए
देस की सारे जनता,
रेग्मी की हाथों पीट गई,
 झलनाथ जैसे राजनेता
झलनाथ को एक 
थपड क्या मारा,
रातो रात मिलगया ,
माओबादी का सहारा,

सत्ता की कुर्सी का
फिर से हुवा मारामारी   
झलनाथ ने कहदिया
अब वारी हैं हमारी,
जैसे की मानो उसकी
बपौती हैं सम्पति,
नहीं मिलने पर उसे,
 होगी बड़ी आपति,
जनताको तो सबोंने लुटा,
 एक वार तुम भी लुट्लो
भरलो अपनी माल खजाना,
पैसा भी पिट्लो,
संबिधान तो तुमसे भी
 न बन पायेगी,
क्यों की कीनर हो
तुम सारे के सारे,
बस हाय हाय करके
ताली बजाते रहो,
संबिधानसभा की
म्याद बढ़ाते रहों,

रचनाकार:-प्रभात राय भट्ट


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

b